Saturday, October 29, 2011

रा-वन : नहीं रख पायेगी किंग खान को नं. वन


काफी प्रचार और ताम-झाम के बीच शाहरुख की बहुचर्चित और बहुप्रतीक्षित ' रा-वन ' आख़िरकार दर्शकों के सामने आ ही गई, मगर दर्शकों द्वारा इसके समक्ष अगर कोई फिल्म रखी जा सकती है तो वो सिर्फ़ ऐसी ही अति प्रचारित ' द्रोणा ' ही हो सकती है...

यह सुखद है कि अब डूबते को तिनके का सहारा के कॉन्सेप्ट में हमारे यहाँ साईंस फिक्शन को भी जगह मिल रही है मगर चमत्कारों और अवतारों पर आश्रित हमारे देश में साईंस फिक्शन भी किसी 'सुपर हीरो' के आविर्भाव तक ही सिमट कर रह जा रहे हैं, या यों कहें कि बाल कहानियों की तपस्या और वरदानों की जगह विज्ञान का कोई सिद्धांत ले ले रहा है, और विज्ञान की भूमिका वहीं तक सीमित रह जा रही है. इसके अलावे एक तथ्य जो इस फिल्म ने और प्रतिस्थापित किया है वो यह कि यहाँ के परिवेश में आप खालिस साईंस फिक्शन नहीं बना सकते, उसमें आपको ठेठ हिन्दुस्तानी इमोशंस, रिश्ते, संवेदनाएं डालनी ही होंगीं और हाँ बौलीवुड की पहचान गानों से भी इन्हें अलग नहीं किया जा सकता. इन मायनों में 'रा-वन' वाकई एक ट्रेंड सेटर बन सकती है जिसका दावा शाहरुख कर रहे हैं.



फिल्म की कहानी एक ऐसे पिता शेखर सुब्रमण्यम की है जो अपने बेटे प्रतीक की नजर में बहुत ही साधारण और डरपोक किस्म का इंसान है, वो उसमें एक सुपर हीरो की तलाश करना चाहता है. उसे  स्ट्रोंग विलेन ज्यादा पसंद हैं जो किसी रुल से बंधे नहीं होते. बुराई पर हमेशा अच्छाई की ही जीत होती है यह समझाते हुए भी    शेखर उसकी खुशी के लिए एक ऐसा वीडियो गेम तैयार करते हैं जिसमें विलेन (रा-वन) हीरो (जी-वन) से ज्यादा पावरफुल होता है. नतीजा रा-वन जो किसी से हार नहीं सकता, जिसे अपनी जीत हर कीमत पर चाहिए -आभासी दुनिया से वास्तविक दुनिया में आ जाता है और प्रतीक की जान का दुश्मन बन जाता है. उसकी जान बचाने में शेखर  मारा जाता है, मगर अब उसकी जगह लेने के लिए विडियो गेम का ही दूसरा पात्र जी-वन आ जाता है. और सुपर हीरो जो दुनिया को बचाने की जिम्मेवारी के साथ आगे आते हैं, की तुलना में जी-वन सिर्फ प्रतीक और उसकी माँ सोनिया के इर्द-गिर्द ही अपना सुरक्षा कवच बनाये रखता है और अंत में बुराई का नाश तो होता ही है, रा-वन के सिक्वल की उम्मीद भी बचा ली जाती है. 

हर कलासिक फिल्म में शायद ट्रेन दृश्य अपरिहार्य हैं, रा-वन में भी इस परंपरा का निर्वाह करते हुए मुंबई के विक्टोरिया टर्मिनल की पृष्ठभूमि में एक ट्रेन दुर्घटना संबंधी दृश्य का वाकई खुबसूरत फिल्मांकन किया गया है.

रजनीकांत की ' चिट्टी ' छवि को शायद बस अपना वरदहस्त देने के लिए इस्तेमाल किया गया है. प्रियंका और संजय दत्त की उपस्थिति भी दर्शकों को कोई विशेष उत्साहित नहीं करती. फिल्म में दृश्यता की कुछ और गुंजाईश बनाये रखने के लिए करीना का अच्छा इस्तेमाल किया गया है. शायद करीना भी एक वजह थी कि फिल्म से पहले एक छोटे एक्सीडेंट से गुजरता हुआ भी मैं इसी सोच के साथ आगे बढ़ा कि " हे बैल, वहीँ खड़ा रह - मैं ही आता हूँ..."

कुछ दृश्य रजनीकांत की 'रोबोट' से प्रेरित भी लगते हैं मगर शायद वो हमारे यहाँ के बाल्यावस्था से गुजरती विज्ञान फंतासी फिल्मों की सीमित संभावनाओं का भी नतीजा है.

जो भी हो विज्ञान की पृष्ठभूमि पर बन रही फिल्मों के प्रयासों को स्वीकार किया जाना चाहिए. हाँ इन फिल्मकारों की भी जिम्मेवारी बनती है कि वो इसके स्तर को आगे बढाएं, न कि अपनी घिसी-पिटी प्रेम कहानियों के लिए मात्र एक नए पृष्ठभूमि की तरह इस्तेमाल करें. वैसे इतना तो स्पष्ट है कि आने वाला समय कुछ अंतराल पर रह-रह कर आने वाले सुपर हीरोज का ही रहेगा और एक वो समय भी आएगा जब ' राज कॉमिक्स' की तरह हमारी फिल्में भी ' कृष-जी वन और शाकाल का कहर' जैसे शीर्षकों के साथ आयेंगीं. यह मेरा फिक्शन है. :-)

चलते-चलते फिल्म में दर्शकों को बैठाये रखने वाले चंद महत्वपूर्ण आकर्षणों में एक - छम्मकछल्लो


Tuesday, October 25, 2011

जगजीत सिंह : एक संगीतमय श्रद्धांजलि


गत 10  अक्तूबर को हमने उस शख्सियत को खो दिया जो जाने कब और कैसे चुप - चाप हमारी साँसों में शामिल हो दिल में कहीं उतर गया था. जगजीत सिंह का जाना मैं अपनी व्यक्तिगत क्षति मानता हूँ. अपने आप का ही साथ सबसे ज्यादा पसन्द करने वाले मेरे जैसे लोगों के पास हर मूड में कभी कोई होता था तो वो निश्चित रूप से जगजीत सिंह ही थे. खुश हुआ तो जगजीत, उदास हुआ तो जगजीत, जीत गया तो जगजीत, हार गया तो जगजीत, भीड़ में रहूँ तो जगजीत, तन्हाई में रहूँ तो जगजीत..... उनकी उपस्थिति को अपने से अलग मानना छोड़ ही दिया था मैंने. ऐसे में उनका जाना मेरे लिए कितना बड़ा मानसिक सदमा था मैं ही समझ सकता हूँ. 

मैं बड़ा ही साधारण आदमी हूँ. भारी-भरकम सिद्धांतों से मैं दूर ही भागता हूँ.  बच्चन जी की मधुशाला से ही मैंने जीवन दर्शन समझ लिया, गांधीजी के गीता पर लिखी टीका से आगे जाने की हिम्मत नहीं हुई और गज़ल जैसी ऊँचे दर्जे की चीज में भी बस जगजीत स्कूल का ही छात्र बने रहने से ज्यादा की आवश्यकता मुझे कभी महसूस नहीं हुई. और यही चीज जगजीत सिंह को बाकी सभी नामी-गिरामी ग़ज़ल गायकों से अलग करेगी कि उन्होंने हाई-प्रोफाइल महफ़िलों और शास्त्रीय दायरों से ग़ज़ल को मुक्त कर आम-से-आम आदमी तक सुलभ करा दिया.खुद भी मेरी कोशिश होती है कि विज्ञान आदि किसी विषय पर लिखी पोस्ट या आर्टिकल को इस प्रकार से लिख सकूँ कि आम-से-आम आदमी को भी सहजता से समझ आ सके. इसी प्रवृत्ति की समानता ने भी शायद मुझे जगजीत सिंह से बांधे रखा था. उनकी चुनी हरेक नज्म, हरेक लफ्ज़ में आम आदमी ने अपने ख्यालों की अभिव्यक्ति पाई; विशेषकर युवाओं ने 'एंग्री यंग मैन' के अलावे भी अंतःकरण में कहीं उभरने वाली भावुक भावनाओं की अभिव्यक्ति में जगजीत सिंह को अपने काफी करीब पाया और शायद जगजीत इस धरती पर उन चंद कारणों में रहे जिसने दो अलग-अलग पीढ़ियों को एक साथ जोड़ा. अनगिनत ऐसे उदाहरण मिलेंगे जहाँ कि पिता अपने कमरे में जगजीत सिंह की ग़ज़ल  सुन रहे होंगे और दुसरे कमरे में उनके सुपुत्र भी जगजीत सिंह के साथ ही अपने ख्याल साझा कर रहे होंगे. यह तो मात्र मेरे जैसे एक अदना से प्रशंसक की भावनाएं हैं, उन्होंने तो न जाने कितने विज्ञ और सुधि श्रोताओं को अपना मुरीद बना लिया था. ऐसे ही एक प्रशंसक समूह का प्रयास था विगत 24  अक्तूबर को ' अनफोरगेटेबल जगजीत - अ म्यूजिकल ट्रिब्यूट ' ; जिसे सांस्कृतिक संस्था ' परिधि आर्ट ग्रुप ' ने आयोजित किया था. कार्यक्रम के आयोजन में अपूर्वा बजाज, पंकज नारायण और निर्मल वैद जी की महत्वपूर्ण भूमिका थी.



कार्यक्रम में जगजीत सिंह के छोटे भाई श्री करतार सिंह सहित कई परिजनों के अलावे सांसद श्री राजीव शुक्ल भी उपस्थित थे. 
करतार सिंह जी सहित उपस्थित परिजन व अतिथिगण

न्यूज 24  चैनल के मयंक जी ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए गुलजार साहब की एक बहुत ही माकूल पंक्ति का उल्लेख किया -
" आज की रात - इस वक़्त के चूल्हे में, एक दोस्त का उपला और गया....." 

श्री आलोक श्रीवास्तव 

जगजीत सिंह जी के लिए कई नज्म लिखने वाले और वर्तमान में टीवी टुडे नेटवर्क के असोसिएट सीनियर प्रोड्यूसर श्री आलोक श्रीवास्तव जी ने भी जगजीत सिंह से जुडी अपनी कई यादें साझा कीं. 

" मंजिले क्या हैं ! रास्ता क्या है !!
हौसला हो तो फासला क्या है !!!.....
जब भी चाहेगा छीन लेगा उसको, 
सब उसी का है, आपका क्या है !!! "

इस कार्यक्रम को अपनी सुरमय श्रद्धांजलि दी विख्यात ग़ज़ल गायक श्री जितेन्द्र सिंह जाम्ब्वाल और श्री विनोद सहगल ने.


श्री जितेन्द्र सिंह जाम्ब्वाल 












श्री विनोद सहगल 


















जितेन्द्र सिंह द्वारा ' बात निकलेगी ' से जो बात शुरू हुई वो ' चिट्ठी न कोई सन्देश ', ' तुम इतना जो ' से गुजरते हुए विनोद जी के 'ग़ालिब' और 'होठों से छु लो तुम...' जैसे कई स्मृति चिह्नों से गुजरती हुई श्रोताओं को जगजीत सिंह से जुडी यादों के कहीं और करीब लेता गया.

 
अक्ष्दीप 

इस बीच जगजीत सिंह जी के रिश्ते में पौत्र अक्ष्दीप ने भी अपनी संगीतमय श्रद्धांजलि प्रस्तुत की - 

" जिसने  पैरों  के  निशाँ भी नहीं छोड़े पीछे, 
उस मुसाफिर का पता भी नहीं पुछा करते;.....
हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छूटा करते..."  

हमें भी यही उम्मीद है कि जगजीत सिंह के साथ बना हमारा यह रिश्ता समय के साथ और मजबूत ही बनेगा छुटेगा नहीं.....
परिजनों व् दर्शकों के साथ बैठे सांसद श्री राजीव शुक्ल 
प्रसिद्धि के शिखर पर पहुँच कर भी जगजीत आम आदमी की अपनी छवि से कभी अलग नजर नहीं आये. समय के साथ उनकी जिंदगी में आने वाले झंझावातों को जिस दृढ़ता और सौम्यता से उन्होंने स्वीकारा उसने भी उन्हें आम आदमी के और करीब ला दिया. उनका व्यक्तित्व अपने प्रशंसकों के लिए वाकई एक स्वाभाविक आदर्श था. अंतिम समय तक वे संगीत के गिरते स्तर और गीतकारों - संगीतकारों को उनके वाजिब अधिकारों के लिए मुखर आवाज उठाते रहे. उनके प्रशंसक अच्छे संगीत और सच्चे कलाकारों को सम्मान दें तो यह भी जगजीत सिंह जी को एक सार्थक श्रद्धांजलि होगी.

मगर हाँ, इतना जरुर कहना चाहूँगा कि कार्यक्रम से पहले से ही जो सवाल मन में उभर रहा था वो अब भी अनुत्तरित ही है कि भावनाएं तो अब भी उभरती रहेंगीं मगर उन्हें अभिव्यक्त करने के लिए जो आवाज हमने अपने दिल में उतारी थी वो अब कहाँ मिलेगी !!!!!

Thursday, October 20, 2011

जयपुर की शान - राजमंदिर सिनेमा




पिछले दिनों काफी भागम-भाग के बीच रंग और रण की भूमि राजस्थान के जयपुर जाने की अपनी पुरानी इच्छा को साकार करने का मौका मिला. इस संपूर्ण यात्रा पर एक विस्तृत पोस्ट जल्द ही लाने का प्रयास करूँगा, मगर आज चर्चा करूँगा जयपुर की शान और पहचान में से एक ' राजमंदिर सिनेमा ' की. 

यहाँ रिलीज पहली फिल्म थी 'चरस'
भगवान दास रोड पर स्थित 1976 में निर्मित राजमंदिर सिनेमा ' एशिया का गौरव ' भी कहलाता है. आर्किटेक्ट  
W. M. Naamjoshi द्वारा Art Moderne शैली में निर्मित यह सिनेमा हॉल अपनी सुरुचिपूर्ण आंतरिक साज - सज्जा के लिए विश्वप्रसिद्ध है और पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र भी.



सिनेमा सहित लगभग हर क्षेत्र की प्रतिष्ठित हस्तियाँ इस छविगृह में फिल्म देखने का आनंद उठा चुकी हैं. सिनेमा देखने को भी एक अनुभव बना देने वाले इस छविगृह के संबंध में कुछ प्रमुख हस्तियों के विचार, जो वहां सहेजे हुए हैं - 

" It is indeed the Proud of India, and we are Proud of it." - B. R. Chopra
" I wish other exhibitors of India learn from Rajmandir how to exhibit a Film." - Raj Kapoor
"... Undoubtedly the Best Theatre in India." - Yash Chopra 
" What a Wonderful Experience ! "- Amitabh Bacchan 
" दर्शनीय "   - श्री अटल बिहारी वाजपेई 



इसे अपना सौभाग्य ही मानूँगा कि इतने व्यस्त कार्यक्रम में भी यहाँ फिल्म देखने का समय निकाल सका, भले इसके लिए ' रास्कल्स ' से ही निपटना पड़ा, मगर कई बार अच्छे सिनेमा हॉल भी फिल्मों को झेले जाने से बचा ले जाते हैं.


राजमंदिर में फिल्म देखना वाकई अपने-आप में एक अनुभव है, और निश्चित रूप से यहाँ आने पर आपको भी इस अवसर से चूकना नहीं चाहिए.


मैं तो यही कहूँगा कि " जयपुर आये और राजमंदिर में फिल्म न देखे, तो क्या खाक जयपुर आये !!! "

Tuesday, October 18, 2011

सीमान्त प्रान्तों के विकास में जल संसाधनों की भूमिका

देश के सीमान्त प्रदेश अपनी प्राकृतिक समृद्धि से ओत-प्रोत हैं, मगर विकास के मानकों से काफी पीछे भी. यही कारण है कि अशिक्षा, बेरोजगारी जैसी समस्याओं से ग्रसित इन प्रान्तों में उपनने वाले आक्रोश को उग्र अभिव्यक्ति दिए जाने के प्रयास भी किये जाते रहे हैं. स्वावलंबी बनने के लिए सिर्फ पर्यटन और पर्यटकों की कृपा दृष्टि पर आश्रित व्यवस्था से मैं सहमत नहीं. उन्हें अपने उपलब्ध संसाधनों का समुचित विकास कर देश की अर्थव्यवस्था में भी अपना योगदान सुनिश्चित करना होगा, तभी वे सही मायने में इस देश के महत्वपूर्ण अंग कहे जा सकेंगे.
'राजभाषा ज्योति' में प्रकाशित लेख 

नौर्थ - ईस्ट हों या जम्मू कश्मीर ये प्रदेश जल संसाधनों से समृद्ध हैं, और यही इनकी ताकत भी हैं. ये सभी प्रदेश खनन आदि की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण माने नहीं जा सकते. साथ  ही जल उर्जा अन्य विकल्पों की तुलना में अपेक्षया प्रदुषण रहित भी है. ऐसे में निश्चित रूप से इस विकल्प का उपयुक्त विकास किया जाना चाहिए.  

जिस प्रकार कोई ईमारत अपने मजबूत पायों पर ही सुदृढ़ हो सकती है, उसी प्रकार किसी देश की समृद्धि, सुरक्षा, आदि अपने चारों कोनों की सुदृढ़ता पर ही निर्भर कर सकती है. 

इन्ही विचारों को मैंने उक्त लेख में रखने का प्रयास किया है जो एन. एच. पी. सी. की हिंदी पत्रिका 'राजभाषा ज्योति' में प्रकाशित हुई है. 

आशा है आपकी भी प्रतिक्रिया तथा सुझाव प्राप्त होंगे.

Monday, October 10, 2011

जगजीत सिंह : कहाँ तुम चले गए.....


जगजीत सिंह एक ऐसा नाम, जो पिछले कई वर्षों से संगीत की स्वरलहरियों से गुजरता हमारे दिलों में उतरता रहा, आज उसी संगीत में घुल अमर हो गया है. निःशब्द हूँ, शब्द खो गए हैं अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए. और ऐसा हो भी क्यों न शब्दों का जादूगर ही जो चला गया; जो मौसिकी के एक घने साये के समान ही तो था !!!!!

मेरे ही नहीं न जाने कितनी पीढ़ियों और धर्म-उम्र की सीमा से परे प्रशंसकों को न सिर्फ उन्होंने अपनी करिश्माई आवाज से मोहित किया है बल्कि हम सभी ने जाने-अनजाने उन्हें अपने सुख-दुःख, खुशियों और गमों में शामिल भी किया है. कितनी रातें जागते हुए गुजारी हैं हमने आपके साथ और कितने दिनों को आपके सहारे काटा है. आज अपने सभी चाहने वालों को अकेला छोड़ एक अनंत यात्रा पर न जाने कौन से देश की ओर  निकल लिए. जानता हूँ की सृष्टि के इस चक्र से कोई नहीं बच सकता, मगर कुछ लोगों को यह हक़ नहीं मिलना चाहिए - कभी नहीं मिलना चाहिए कि बस मुंह मोड़ा और चल दिए...

कहते हैं जाने वाले को रोकर विदा नहीं करते, मगर कुछ रिश्ते ऐसे बन जाते हैं जो दिमाग से निर्धारित नहीं होते.....

आपने भी जिंदगी में कम गम झेले हों ऐसा नहीं था, मगर संगीत का सहारा आपके पास था अपने गम को छुपाने के लिए, जिसके साथ मुस्कुराते हुए आपने अपना गम तो छुपा लिया मगर हमारे पास तो यह विकल्प भी नहीं है. खैर अब हैं तो बस आपकी ग़ज़लों की विरासत .... और अब वही शायद साथ-साथ रहे हमारे...

आप जहाँ भी रहें, सुकून से रहे, और ईश्वर चित्रा जी को इस दुःख से उबरने की शक्ति दे यही प्रार्थना है.....

अपनी घुड़सवारी के शौक के समान ही खुबसूरत शब्दों पर सवार हो दिल में उतर जाने वाली आवाज के साथ जग को  जीतने वाले जगजीत सिंह  कभी भुलाये नहीं जा सकेंगे.....

ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो,
भले छीन लो मुझसे, मेरी जवानी;
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन, 
वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी.....



Friday, October 7, 2011

अमूल : वाकई 'द टेस्ट ऑफ इण्डिया'


यह पोस्ट अमूल के किसी भारी-भरकम अध्याय पर आधारित नहीं है बल्कि यह मात्र एक प्रयास है उन डेलिशियस यादों को दोहराने का जो अमूल ने हमसे बांटे हैं अपने अटरली बटरली  एड्स के जरिये.

अमूल के विज्ञापन हमेशा से ही काफी रोचक और सामायिक घटनाक्रम पर तीक्ष्ण नजर रखने वाले रहे हैं. एक दौर था जब बनारस में आँखें जाने-पहचाने मोड़ से गुजरते हुए उस होर्डिंग्स को ढूंढती रहती थीं जिसपर इसके नए एड लगाये जाते थे. तब काफी अफ़सोस हुआ था जब किसी कारणवश उस होर्डिंग को हटा दिया गया था.



अमूल के एड्स हमेशा से ही जनमानस की भावनाओं की अभिव्यक्ति के काफी करीब रहे हैं, चाहे कोई राजनीतिक मुद्दा हो या सामाजिक या मनोरंजक.


हाल में ही 'एप्पल'  के सह संस्थापक स्टीव जौब्स  और नवाब पटौदी को अपने अनूठे अंदाज में श्रद्धांजलि दे अमूल ने अपनी गहरी संवेदनशीलता का भी परिचय दिया है.





अमूल विज्ञापनों के थिंक टैंक के सन्दर्भ में यदि आपके पास भी कोई जानकारी हो तो हमसे भी साझा करें.

अमूल परिवार को उसके सफल और लंबे सफर की शुभकामनाएं.



चलते-चलते यह अमूल - मंथन :

" मेरो गाम कंथा पारे..."

Sunday, October 2, 2011

गांधीजी के विचारों की कालजयिता



कभी स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि अगर कभी वेदांत लौट कर आया तो वह अमेरिका में आएगा. ऐसा इसलिए कि भौतिक समृद्धि सहित सभ्यता के हर चरण के चरम पर पहुँच जाने के बाद ही उसके ह्रदय में परम लक्ष्य और शांति की लालसा जागेगी और वह इसे स्वीकृत कर सकेगा. मगर निःसंदेह आज अमेरिका ही नहीं समस्त विश्व एक आतंरिक बेचैनी, अधूरेपन से गुजर रहा है और शांति की एक शीतल छाँव का आकांक्षी है. मगर आध्यात्म के सिद्धांतों को आत्मसात करने के लिए शायद अभी पूर्णतः परिपक्व नहीं हुआ है, और तभी ऐसे में उभरता है एक ऐसा नाम जो इन सिद्धांतों की एक व्यावहारिक अभिव्यक्ति है - ' महात्मा गांधी '. 

एक आम आदमी किस तरह स्वयं में आत्मिक और आंतरिक विकास सुनिश्चित कर सकता है इसका एक ऐसा व्यावहारिक उदाहरण हैं गाँधी जिन्हें कोई भी अनुकरण कर सकता है. इसीलिए आज समस्त विश्व में ही गाँधी के विचारों को समझने, आत्मसात करने या व्यवहार में उतारने के कई उदाहरण सामने आ रहे हैं. यहाँ तक कि ' मरा-मरा' कहने वाले भी 'राम-राम' कहने को बाध्य हो गए हैं, मगर बाल्मीकि बनने के लिए उनमें सच्चा आत्मिक आग्रह भी होना आवश्यक है. 

आप गाँधी विरोधी भी हों मगर उनसे अछूते नहीं रह सकते. पिछले चंद महिनों में धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक लगभग हरेक स्वरूपों में ही गाँधी जी की बनाई लकीर पर चलने की कोशिश करते दिखना इस उपमहाद्वीप में गांधीजी की अपार जनस्वीकार्यता को ही दर्शाता है. 

गांधीजी अपनी स्वीकार्यता, सार्वभौमिकता के लिए किसी सरकारी कर्मकांड या किसी के समर्थन अथवा   आह्वान के मोहताज नहीं हैं. उनके विचारों को नए परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास कर हम उनपर उपकार नहीं करने वाले, बल्कि उन विचारों तक हमारी निर्बाध उपलब्धता सुनिश्चित कर उन्होंने आने वाली पीढ़ियों को उपकृत किया है. अब यह तो आधुनिक विचारकों (!) के टेस्ट पर निर्भर करता है कि अब वो उनमें कड़वी दवा ढूंढें या चटपटे मसाले.

आज गांधीजी के विचारों को धरती पर उतारने वाले कई युवा और संगठन निःस्वार्थ भाव से गाँवों में जाकर उनके आदर्श ग्राम के स्वप्न को धरती पर उतरने के प्रयास कर रहे हैं. गांधीजी की आत्मा और उनका आशीर्वाद उन निःस्वार्थ कर्मयोगियों के बीच ही विद्यमान है. मैं बार - बार यह कहता रहा हूँ कि अहिंसा के पुजारी एक व्यक्ति की मृत्यु के बाद भी लोग उसे सकारात्मक / नकारात्मक किसी भी पक्ष में भूलते नहीं और उनके समकालीन या पूर्व अथवा बाद में बने कट्टरपंथी संगठनों से अपेक्षित संख्या में जुड़ते नहीं तो कहीं-न-कहीं उस दुबले-पतले, इकहरे आदमी  में कुछ तो बात रही ही होगी. शायद तभी आज कहीं दुनिया की बड़ी कंपनिया उन्हें सबसे बेहतर सीईओ के रूप में देखती है तो सर्वशक्तिमान देश के मुखिया उनके सानिध्य की आकांक्षा रखते हैं. 

आज चाहे-अनचाहे कई संगठन अपने -आपको गांधिमार्गी  प्रदर्शित करने का मुखौटा  लिए  घूम रहे हैं, मगर विश्वास है कि हिंदुस्तान की संवेदनशील और विवेकी जनता उन मुखौटों के पीछे छुपी सच्चाई को पहचानने में पुनः अपनी सक्षमता का परिचय देगी.

आज के इस पावन अवसर पर गांधीजी के विचारों के मूर्त रूप आदरणीय लाल बहादुर शास्त्री जी को भी नमन.

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